Lockdown before information is “biggest man-made tragedy” in the country: Ram Chandra Guha
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हाल ही में जाने माने इतिहासकार और अर्थशास्त्री रामचंद्र गुहा को बेंगलुरु में CAA के विरोध प्रदर्शन के कारण Dec 20, 2019 को बेंगलुरु पुलिस ने उनके 30 साथियों के साथ उन्हें हिरासत में लिया था, अपने मुखर और बेबाकी के कारण जाने जाने वाले इन इतिहासकार ने ‘पीटीआई भाषा’ को दिए साक्षात्कार में कहा है कि – “यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लॉकडाउन लागू करने से पहले प्रवासी श्रमिकों को अपने घर लौटने के लिए एक सप्ताह का समय दिया होता तो इस त्रासदी को टाला या कम किया जा सकता था। कोरोना वायरस से निपटने के लिए लागू लॉकडाउन के कारण लाखों गरीब लोग जिस संकट से जूझ रहे हैं, वह भारत में बंटवारे के बाद ‘‘सबसे बड़ी मानव निर्मित त्रासदी” है। देश के अन्य लोगों पर भी इस संकट के सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक परिणाम देखने को मिलेंगे। यह संभवत: बंटवारे जितना बुरा नहीं है।”
‘रिडीमिंग द रिपब्लिक’ और ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ जैसी किताबों के लेखक गुहा ने कहा- ‘‘मुझे नहीं पता कि प्रधानमंत्री ने जो फैसला किया, वह उन्होंने कैसे किया। क्या उन्होंने जानकार अधिकारियों से विचार-विमर्श किया या कैबिनेट मंत्रियों से सलाह ली? या उन्होंने एकतरफा फैसला किया?” उन्होंने कहा कि यदि अब भी प्रधानमंत्री विपक्ष में मौजूद लोगों सहित विभिन्न जानकार लोगों से सलाह लेने का नजरिया अपनाते हैं तो हालात में ‘‘थोड़ा” सुधार किया जा सकता है। लेकिन मुझे आशंका है कि वह ऐसा नहीं करेंगे। उनके कैबिनेट मंत्री केंद्र के पैदा किए संकट से बचने के लिए राज्यों पर जिम्मेदारी डालने में व्यस्त हैं। यदि प्रवासियों को मध्य मार्च में घर जाने की अनुमति दी जाती, उस समय कोविड के कुछ ही मामले थे, तो वे सुरक्षित अपने समुदायों में मिल जाते।”
आगे उनका कहना था कि लॉकडाउन लागू होने के बाद लाखों प्रवासी श्रमिक सैकड़ों-हजारों किलोमीटर दूर स्थित अपने गृहराज्यों के लिए पैदल या साइकिलों से ही निकल पड़े हैं और यह सिलसिला आज भी जारी है। उन्हें रस्ते में पुलिस प्रताड़ना, भूख-प्यास, यहाँ तक कि अकाल मृत्यु को भी झेलना पद रहा है। इस त्रासदी के तीन आयाम हैं-सार्वजनिक स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था एवं समाज। लेकिन अब इस तरह से उनका अपने घरों कि तरफ लौटना बहुत खतरनाक साबित हो सकता है क्यूंकि अब उनमें से इतने अधिक लोग संक्रमित हो गए हैं कि वे बीमारी का वाहक बन गए हैं।
उन्होंने इस बात का भी संकेत दिया है कि – ” अर्थव्यवस्था वैश्विक महामारी से पहले ही संकट में थी और अब यह ध्वस्त होने की कगार पर है। सामाजिक और मनोवैज्ञानिक प्रभावों के कारण जो प्रवासी श्रमिक इतनी मुश्किलों के बाद अंतत: घर पहुंच गए हैं, वे काम की तलाश में अब शहरों और कारखानों में नहीं लौटना चाहेंगे।” इसका सबसे बुरा असर उन फैक्ट्रियों पर भी पड़ेगा जो अब खुलने लगे हैं क्यूंकि फैक्ट्रियों की रीढ़ हड्डी कहे जाने वाले उनके वर्कर भी अब कभी भी यहाँ वापिस आना नही चाहेंगे।