झारखंड राज्य के हजारीबाग की सोहराय और कोहबर कला को मिला GI Tag

झारखंड राज्य के हजारीबाग की सोहराय और कोहबर कला को मिला GI Tag

Sohrai and Kohbar art of Hazaribagh of Jharkhand state got GI Tag.

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झारखंड राज्य के हजारीबाग की सोहराय और कोहबर कला यहां के स्थानीय और ग्रामीण अंचल में बाहरी व भीतरी दीवारों की गई एक विशेष प्रकार की सूंदर चित्रकारी है। जिसे सोहराई पर्व के अवसर पर आदिवासी समूहों की महिलाओं द्वारा दीवारों पर बनाई जाती है। सोहराई पर्व दीवाली के तुरंत बाद फसल कटने के साथ मनाया जाता है। इस अवसर पर आदिवासी समूह की महिलाये अपने घर की दीवारों पर चित्र बनाती है। इसमें मिट्टी के रंगों का इस्तेमाल होता है। गेरु पत्थर से बना लाल रंग, पीली मिट्टी, दूधी मिट्टी और काली मिट्टी का इसमें प्रयोग होता है। झारखण्ड के अनेक जिलों में कोहबर एवं सोहराईं की समृद्ध परम्परा रही है। कोहबर शब्द दो शब्दों ‘ कोह है एवं ‘वर’ से बना माना जाता है। कोह या खोह का अर्थ गुफा होता है। वर ‘दूल्हे’ को कहा जाता है अत : कोहबर का अर्थ दूल्हे का कमरा है। कोहबर आज भी इसी नाम से प्रचलित है और आज भी कोहबर विहार, मधुबनी/दरभंगा आदि स्थानों पर भव्य रूप से बनाया या लिखा जाता है। गौर से देखें तो आज की कोहबर कला झारखण्ड में पायी जाने वाले सदियों पुराने गुफाचित्रों का ही आधुनिक रूप है। हजारीबाग की कोहबर चित्रकला को फैलाने का श्रेय यहाँ के आदिवासियों को दिया जाता है। मिट्टी की दीवारों पर बनाये जाने वाला यह चित्रण पूरी तरह से महिलाओं द्वारा किया जाता है। यह चित्रण बहुत ही कलात्मक और इतना स्पष्ट होता है कि पढ़ा जा सकता है। कोहबर के चित्रों का विषय सामान्यत: प्रजनन, स्त्री -पुरुष संबंध, जादू-टोना होता है, जिनका प्रतिनिधित्व पतियों,पशु -पक्षियों, टोने-टोटकै के ऐसे प्रतीक चिहों द्वारा किया जाता है, जो वंश वृद्धि के लिये प्रचलित एवं मान्य हैं जैसे -बांस, हाथी, कछुआ, मछली, मोर, सौप, कमल या अन्य फूल आदि। इनके अलावा शिव की विभिन्न आकृतियों और मानव आकृतियों का प्रयोग भी होता है। ये चित्र घर की बाहरी अथवा भीतरी दीवारों पर पूरे आकार में अंकित किये जाते हैँ।

कोहबर चित्र बनाने की दो शैलियाँ प्रचलित है। सबसे पहले मिटूटी से दीवारों पर पृष्ठभूमि को तैयार करने के लिये काली मिट्टी का लेप हाथ से या झाडू से किया जाता है । सूख जाने के बाद उसके ऊपर सफेद मिट्टी का लेप चढाया जाता है। इस गीली मिट्टी पर ही बास या प्लास्टिक के कंघे से तरह तरह की आकृतियाँ” इस तरह बनाई जाती है कि उपर की सफेद मिटूटी हट जाती है और नीचे की काली मिटूटी में आकृतियाँ” स्पष्ट हो जाती हैं। कहीं-कहीं कंघी की जगह चार उँगलियों का इस्तेमाल भी किया जाता है। दूसरे तरीके में दीवारों या मिट्टी की सतह तैयार कर कूचियों से आकृतियां बनाई जाती है। आकृतियों में सामान्यत: सफेद, गेरू, वाला, पीला, हरा आदि रंग का प्रयोग होता है। सोहराई चित्रों में दीवारों की पृष्ठभूमि मिट्टी के मूल रंग की होती है। उस पर कत्थई राल, गोद (कैओलीन) और काले (मैंगनीज) रंगों से आकृतियां बनायी जाती है। कोहबर एबं सोहराई चित्र विभिन्न आदिवासी समूह या उपजाति के अनुसार अलग अलग होते हैं । हजारीबाग जिले के जोरकाठ, इस्को, शंरेया, सहैदा, ढेठरिगे, खराटी, राहम आदि गाँवों में कोहबर चित्रांकन सदियों से होता आ रहा है। अब उन्हें अन्तर्सष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक और सांस्कृतिक पहचान मिलने का यह पहला मौक़ा होगा जब झारखण्ड राज्य में किसी कला को पहली बार ज्योग्राफिकल इंडिकेशन (GI टैग) मिला है।

क्या है GI टैग यानी जियोग्राफिकल इंडिकेशंस टैग – भारतीय संसद ने 1999 में रजिस्ट्रेशन एंड प्रोटेक्शन एक्ट के तहत ‘जियोग्राफिकल इंडिकेशंस ऑफ गुड्स’ लागू किया था, इस आधार पर भारत के किसी भी क्षेत्र में पाए जाने वाली विशिष्ट वस्तु का कानूनी अधिकार उस राज्य को दे दिया जाता है।

GI टैग किसको मिलता है:- किसी भी वस्तु को GI टैग देने से पहले उसकी गुणवत्ता, क्वालिटी और पैदावार की अच्छे से जांच की जाती है।. यह तय किया जाता है कि उस खास वस्तु की सबसे अधिक और ओरिगिनल पैदावार निर्धारित राज्य की ही है। इसके साथ ही यह भी तय किए जाना जरूरी होता है कि भौगोलिक स्थिति का उस वस्तु की पैदावार में कितना हाथ है। कई बार किसी खास वस्तु की पैदावार एक विशेष स्थान पर ही संभव होती है। इसके लिए वहां की जलवायु से लेकर उसे आखिरी स्वरूप देने वाले कारीगरों तक का हाथ होता है।

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